कानपुर में 1935 में जन्मे बशीर बद्र का ग़ज़लगोई में अपना अलग और विशिष्ठ स्थान है ! वे उन इने-गिने शोअरा में शुमार हैं, जिनके अशआर जन्मते ही मुहावरों और उक्तियों की तरह लोगों की ज़ुबान पर कब्ज़ा जमा लेते हैं ! ग़ज़ल को हिंदी-उर्दू के खानों में बांटने के घोर विरोधी डॉ. बद्र की ग़ज़लों की अपनी भाषा है, खालिस ग़ज़ल की भाषा ! उन्हें ग़ज़ल कहते हुए अंग्रेजी शब्दों से भी कोई परहेज़ नहीं है, अगर वह भावाभिव्यक्ति की जरूरत हो -
वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे
दरअसल उनकी ग़ज़लों को 'कल की ग़ज़ल के पैगम्बर' कहना ही उचित है ! लुत्फ़ उठाएं ऐसी ही एक सादा अल्फ़ाज़ में बहुत गहरे ख़यालात पेश करने वाली ग़ज़ल का-
न जी भर के देखा, न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
उजालों की परियां नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती नदी रुक गई
ज़ुबां सब समझते हैं जज़्बात की
मुक़द्दर मिरी चश्मे-पुरआब का
बरसती हुई रात, बरसात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहां दिन गुज़ारा, कहां रात की
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आरज़ू : इच्छा, तमन्ना: मुलाक़ात : भेंट, ख़यालात : विचार, ज़ुबां : भाषा, यहां आशय बोली से है; जज़्बात : मनोभाव, चश्म : नेत्र, आंख; पुरआब : जलपूर्ण, ख़बर : समाचार, यहां आशय सूचना से है
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