Thursday, October 28, 2010

सम्पत्ति की रक्षा के लिए बलप्रयोग जायज़

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही एक मुकदमे पर फैसला सुनाते हुए ‘आत्मरक्षा के अधिकार’ की एक नई और महत्वपूर्ण व्याख्या की । अब तक कानून यह कहता था कि किसी व्यक्ति से यदि आपकी जान को खतरा उत्पन्न होता है, तो आपके द्वारा किया गया बल प्रयोग जायज़ है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में कहा है कि अपनी चल-अचल सम्पत्ति की रक्षा के लिए किया गया बल प्रयोग भी जायज़ है। बलपूर्वक आत्मरक्षा का अधिकार केवल अपने आपको बचाने तक सीमित नहीं है, अगर कोई हमलावर आपकी सम्पत्ति चुरा रहा है या जबरन उस पर कब्जा करने की कोशिश कर रहा है, तो उसे बचाने के लिए आप बल प्रयोग कर सकते हैं।
इस ऐतिहासिक फैसले की विस्तृत व्याख्या से पहले संबंधित केस की पृष्ठभूमि जान लेना बेहतर होगा। सिकंदर सिंह ने एक सम्पत्ति पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से अपने कुछ साथियों के साथ हमला किया । जवाब में सम्पत्ति के मालिक ने अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए हमलावर सिकंदर और उसके साथियों पर गोलियां चलाईं, जिससे इन लोगों को चोटें आई। इन चोटों के आधार पर सिकंदर सिंह तथा उसके साथियों ने सम्पत्ति मालिक के खिलाफ हिंसा एवं मारपीट का मुकदमा दर्ज करा दिया। निचली अदालत में शुरू हुआ मुकदमा अंतत: सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया, जहां सिकंदर की याचिका को ठुकरा दिया गया और उसे कोई राहत नहीं दी गई। सिकंदर की याचिका को ठुकराते हुए अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निजी रक्षा के अधिकार के सिद्धांत के पीछे बुनियादी तथ्य यह है कि जब किसी व्यक्ति को या उसकी सम्पत्ति को खतरा हो और राज्य के अमले से तुरंत मदद नहीं पहुंच सके या उपलब्ध न हो, तो उस व्यक्ति को अपनी और अपनी सम्पत्ति की रक्षा करने का अधिकार है और इसके लिए वह उचित बल प्रयोग भी कर सकता है। न्यायाधीश डी. के. जैन और आर.एम. लोढ़ा की खण्डपीठ ने यह फैसला सुनाते हुए यह नहीं बताया कि ‘उचित बलप्रयोग’ क्या है।
सवाल यह उठता है कि ‘उचित बलप्रयोग’ की परिभाषा क्या है? अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए व्यक्ति कितना बल प्रयोग कर सकता है। किन्तु यह सहज ही समझा जा सकता है कि यह सब परिस्थितियों पर निर्भर है। कहीं केवल लाठी ही आक्रमणकारियों के खिलाफ कारगर हो सकती है और कहीं इसके लिए गोली ही पर्याप्त होगी। संभवत: इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने यह परिभाषा निर्धारित नहीं की कि बल प्रयोग कैसा और कितना हो। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जाहिर है कि आत्मरक्षा में व्यक्ति परिस्थिति के अनुसार कम या ज्यादा बल का प्रयोग कर सकता है अर्थात् व्यक्ति को आत्मरक्षा में एक थप्पड़ से लेकर खून बहाने तक का अधिकार है, लेकिन यदि वह अपने इस अधिकार का दुरुपयोग करता है, तो यह दंडनीय होगा अर्थात् जहां केवल हवा में गोली चलाने से बात बन सकती थी, वहां यदि सीने पर गोली चलाई गई है, तो इसे ‘आत्मरक्षा का अधिकार’ नहीं मानकर व्यक्ति को अपराधी माना जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के अनुसार अपनी या अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए किया गया बल प्रयोग हमलावर से उत्पन्न खतरे के समानुपाती होना चाहिए, उससे बहुत अधिक नहीं। निर्णय में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि आत्मरक्षा में बल प्रयोग की न्यायोचित प्रतीत होने वाली सीमा निर्धारित करना कठिन है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, ‘‘जिस व्यक्ति को खतरा है, वह ठीक खतरे के वक्त अपने आपको या अपनी सम्पत्ति को बचाने के लिए किन साधनों और कितने बल का प्रयोग करता है, इसे सुनहरी तराजू पर नहीं तोला जा सकता। न यह संभव है और न ही विवेक इसकी अनुमति देता है कि यह जानने के लिए कि खतरे में फंसे हुए व्यक्ति ने आत्मरक्षा में उचित साधनों और जरूरत के मुताबिक बल का प्रयोग किया अथवा नहीं, अमूर्त पैमाने निर्धारित किए जाएं।’’
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि सम्पत्ति पर कब्जे की नीयत से सिकंदर सिंह और उसके साथियों ने ही हमला किया था, सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय में कहा, ‘‘आत्मरक्षा के अधिकार में आक्रामक होना अथवा हमलावर होना शामिल नहीं है... याचिकाकर्ता यह स्थापित करने में विफल रहे हैं कि वे निजी रक्षा के अधिकार का प्रयोग कर रहे थे।’’
वर्तमान में देश में जो परिस्थितियां हैं और क़ानून व्यवस्था की जो स्थिति है, उसके मद्दे-नज़र यह सहज ही समझा जा सकता है कि ‘आत्मरक्षा के अधिकार’ की सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई इस नई व्याख्या से जनता को काफी राहत मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट ने आत्मरक्षा के निजी अधिकार का विस्तार चल-अचल सम्पत्ति की रक्षा तक आज की जरूरत के हिसाब से किया है, लेकिन इस फैसले का स्वागत करते हुए भी यह जरूरत साफ महसूस होती है कि संभ्रान्त लोगों को हथियार लाइसेंस देने में और नरमी बरतने की जरूरत है, क्योंकि इस महत्वपूर्ण फैसले का भले लोगों को पूरा लाभ तभी मिल सकता है, जब उन्हें शस्त्र लाइसेंस सुगमता से मिलें। सरकार को यह कदम शीघ्र उठाना चाहिए कि वह कम से कम शरीफ नागरिकों के लिए हथियारों का लाइसेंस उपलब्ध कराने की प्रक्रिया आसान करे, तभी आत्मरक्षा के अधिकार का सही अर्थ और लाभ सामने आ सकेगा ।

Sunday, October 10, 2010

बाक़र मेहदी

"नक़ाब फैशन की हो या अकीदे की ! मैं दोनों को अदब के लिए मुज़िर समझता हूं ! हाली से सरदार जाफरी तक जो शायरी हुई है, वह एक ख़ास किस्म की मकसदी शायरी है ! उसमें शायरी कम और पैगाम्बरी ज्यादा हावी है ! तरक्कीपसंद शायरी को जदीद नहीं कहा जा सकता !" गहन अध्ययन, चिंतन, कविता, आलोचना, संघर्ष, सचाई की पक्षधरता और स्पष्टवादिता जब एक बिंदु पर जमा होती है, तो उसका एक नाम बाक़र मेहदी भी होता है ! उनका अध्ययन क्षेत्र इतना विविध और विशाल है कि उर्दू में तो शायद ही कोई समानता का दम भर सके ! काव्य में प्रयोग करने से पहले जिस कलात्मक परिपक्वता की जरूरत होती है, वह बाक़र मेहदी में कूट-कूट कर भरी है ! इसके बावजूद उर्दू अदब में वे उपेक्षित से रहे हैं ! हालांकि वे उन बुद्धिजीवियों में शुमार हैं, जो अपनी तर्कबुद्धि से चीजों को समझते भर नहीं हैं, बल्कि उसी की रोशनी में ज़िन्दगी गुजारते हैं ! मार्क्सवादियों से शायद इसीलिए उनकी ज्यादा नहीं बनी ! शायरी में रचनात्मक आज़ादी के मानी क्या होते हैं, यह बाक़र मेहदी की शायरी से बखूबी समझा जा सकता है ! चेगुआरा के प्रशंसक बाकर मेहदी ने शायरी के साथ-साथ अरसे तक अनियतकालीन अदबी मैगजीन 'इज़हार' का सम्पादन भी किया ! यहां पढ़िए उनकी एक मोहक ग़ज़ल-



खुद अपने आप पे हंसने का फ़न सिखा मुझ को
खुदा बना के फ़रिश्तों से फिर लड़ा मुझ को

किरण की तरह मुझे रोशनी की रूह में डाल
मैं अश्क़ बनके गिरा हूं, ज़रा उड़ा मुझ को

विसाले-आतिशो-आहन मुझे डरा न सके
फ़िराक़े-आबो-हवा से मगर डरा मुझ को

मिरे क़लम से मिरा नाम लिख के काट कभी
मिरी किताब जला के ज़रा दिखा मुझ को 

मैं एक चीख हूं, तूफां से लड़ता आया हूं
बना के बर्क पहाड़ों प' अब गिरा मुझ को

फ़सुर्दा हूं मैं यगाना के शे'र मुझ को सुना
मैं डूबता हूं सरे-शाम से बचा मुझ को

मैं इंक़िलाब की आहट तो पा रहा हूं मगर
मिरी नवा से मिला दे कोई सदा मुझ को

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अकीदा : मत, मुज़िर : हानिकर, हाली और सरदार जाफरी : उर्दू के प्रसिद्ध शायर, मकसदी : एक ध्येय या उद्देश्य लेकर की गई, पैगाम्बरी : सन्देशवाहकता, फ़न : कला, अश्क़ : आंसू, विसाले-आतिशो-आहन : आग और लोहे का मिलाप, फ़िराक़े-आबो-हवा : पानी और हवा का वियोग, बर्क : आकाशीय बिजली, फ़सुर्दा : उदास, यगाना : मिर्ज़ा यास यगाना चंगेजी - उर्दू के श्रेष्ठ शायर, इंक़िलाब : क्रान्ति, नवा : आवाज़, सदा : पुकार !

असग़र गोंडवी

असग़र हुसैन उर्दू अदब में असग़र गोंडवी तखल्लुस से एक बड़ी पहचान रखते हैं ! उनके पुरखे गोरखपुर के थे, लेकिन असग़र की पैदाइश गोंडा में 1884 की पहली मार्च को हुई और अपने वालिद के तमाम ट्रांसफर्स के बावजूद वे ताउम्र गोंडा में ही मुकाम किए रहे ! वे जिगर मुरादाबादी के बहुत करीब रहे, यहां तक कि अपनी बेगम की छोटी बहन का निकाह जिगर से करा कर उनसे रिश्ता जोड़ लिया ! उन्होंने 1925 में लाहौर में भी कुछ वक्त बिताया और डॉ. इकबाल से इस दौरान बहुत कुछ सीखा भी, लेकिन उनके कलाम पर इसका कोई असर बिलकुल नज़र नहीं आता ! शायरी के लिए अपनी ही ज़मीन पर बेहद अपनी राह उन्होंने खुद बनाई और इसीलिए वे एक बड़े शायर हैं ! तंज़ और मजाहिया कलाम उनकी दिली पसंद थे ! उनका एक शे'र उनका फलसफा बयान करता है -

चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियां हों ज़िंदगी दुशवार हो जाए


दरअसल उन्होंने ज़िदगी में इतनी कठिनाइयां झेली थीं कि इनसे जुदा किसी राह पर चलना फिर उनको गवारा ही नहीं हुआ ! उनके दो दीवान 'निशात-ए-रूह' (1925) और 'सरूद-ए-ज़िन्दगी' (1935) शाया हुए ! ख़ास बात यह है कि उनकी नज्में भी ग़ज़लों की तरह ही मकबूल हुईं ! उन्होंने गद्य पर कलम चलाई, तो अखबारनवीसी भी की ! आइए, रू-ब-रू हों असग़र के कलाम से -


एक.


यह इश्क ने देखा है, यह अक्ल से पिन्हां है
कतरे में समंदर है, ज़र्रे में बयाबां है

ऐ पैकर-ए-महबूबी मैं किससे तुझे देखूं
जिसने तुझे देखा है वो दीदा-ए-हैरां है

सौ बार तेरा दामन हाथों में मेरे आया
जब आंख खुली, देखा, अपना ही गरेबां है

यह हुस्न की मौजें हैं या ज़ोश-ए-तबस्सुम है
उस शोख के होठों पर इक बर्क सी लरज़ाँ है

'असग़र' से मिले लेकिन 'असग़र' को नहीं देखा
अशआर में सुनते हैं कुछ कुछ वो नुमायां हैं


दो.


मस्ती में फ़रोग-ए-रुख-जानां नहीं देखा
सुनते हैं बहार आई, गुलिस्तां नहीं देखा

ज़ाहिद ने मेरा हासिल-ए-ईमां नहीं देखा
रुख पे तेरी ज़ुल्फ़ों को परेशां नहीं देखा

हर हाल में बस पेश-ए-नज़र है वही सूरत
मैंने कभी रू-ए-शब-ए-हिज्रां नहीं देखा

रूदाद-ए-चमन सुनता हूं इस तरह क़फ़स में
जैसे कभी आंखों से गुलिस्तां नहीं देखा

शाइस्ता-ए-सोहबत कोई उनमें नहीं 'असग़र'
काफ़िर नहीं देखा कि मुसलमां नहीं देखा 

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मौज-ए-हवादिस : दुर्घटनाओं की लहरें, पिन्हां : छुपा हुआ, क़तरा : बूंद, पैकर-ए-महबूबी : प्रेमिका का शरीर, दीदा-ए-हैरां : हैरान निगाहें, बर्क : बिजली, नुमायां : स्पष्ट, फ़रोग-ए-रुख-जानां : प्रेयसी के सुन्दर चेहरे का बढ़ता हुआ सौन्दर्य, ज़ाहिद : संत, उपदेशक; हासिल-ए-ईमां : धर्म का प्राप्य, रुख : चेहरा, परेशां : बिखरे हुए, पेश-ए-नज़र : नज़र के सामने, रू-ए-शब-ए-हिज्रां : वियोग की रात का चेहरा, रूदाद-ए-चमन : बाग़ का हाल (वैसे रूदाद का शाब्दिक अर्थ अफ़साना अथवा कहानी है), क़फ़स : पिंजरा, शाइस्ता-ए-सोहबत : साहचर्य के संस्कार !

अकबर इलाहाबादी

इलाहाबाद में 1846 के नवम्बर माह के सोलहवें रोज जन्मे सैयद हुसैन उर्दू शायरी में अकबर इलाहाबादी के नाम से मशहूर हैं ! उनका सृजन लोगों की जुबां पर इस क़दर चढ़ा हुआ है कि अकबर किसी परिचय के मोहताज़ नहीं ! यहां बस, दस्तूर निभाने के लिए दो-चार पंक्तियां ! अकबर साहब ने अपने कलाम का केंद्र तंज़ और मज़ाहिया मुद्दों को बनाया ! यही वजह है कि उनके अनेक अशआर वुद्धिमानों की महफ़िलों में बड़े अदब से पढ़े जाते हैं, तो वही शे'र रिक्शा और ट्रकवाले भी बड़े फख्र और शौक से अपने वाहनों के पीछे लिखवाते हैं ! उनकी महानता और जनप्रियता का सबसे बड़ा सबूत एक फिल्मी नग्मे में उनके इस्मे-शरीफ का उपयोग - 'मैं हूं अकबर इलाहाबादी ...' है ! यहां पहले रू-ब-रू होते हैं उनके मज़ाहिया कलाम से और उसके बाद तीखे तंज़ से ! लुत्फ़ उठाएं- 



एक .


ख़ुशी है सबको कि आपरेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है

फ़ना उसी रंग पर है क़ायम, फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर है वह कल, जो आज सांचे में ढल रहा है

यह देखते ही जो कासये-सर, गुरूरे-ग़फ़लत से कल था ममलू
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है

समझ हो जिसकी बलीग़ समझे, नज़र हो जिसकी वसीअ देखे
अभी तक ख़ाक भी उड़ेगी जहां यह क़ुल्जुम उबल रहा है

कहां का शर्क़ी कहां का ग़र्बी तमाम दुख-सुख है यह मसावी
यहां भी एक बामुराद ख़ुश है, वहां भी एक ग़म से जल रहा है

उरूजे-क़ौमी ज़वाले-क़ौमी, ख़ुदा की कुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अन्दर यह अम्र पोलिटिकल रहा है

मज़ा है स्पीच का डिनर में, ख़बर यह छपती है पायनियर में
फ़लक की गर्दिश के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है


दो.


बिठाई जाएंगी परदे में बीवियां कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियां कब तक

हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियां कब तक

मियां से बीवी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियां का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियां कब तक

तबीयतों का नमू है हवा-ए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियां कब तक

अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियां कब तक

जो मुंह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियां कब तक

जनाबे हज़रते 'अकबर' हैं हामि-ए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयां कब तक

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हरम-सरा : भवन का वह भाग जहां स्त्रियां रहती हैं, तेग़ : तलवार, नमू : उठान, मग़रिब : पश्चिम, ग़ैरत : हयादारी, हरारत : गर्मी, अवाम : जनता, मुसिर : जिद करना, हामि-ए-पर्दा : पर्दे का समर्थन करने वाला !

क़तील शिफ़ाई

क़तील शिफ़ाई यानी क़त्ल होके शिफा देने वाला ! शायर की नियति समग्रता के साथ इस एक नाम में छिपी हुई है ! क़तील ने कभी अपने इस नाम को रुसवा नहीं किया ! हालात की सख्तियां हों, ज़िन्दानों की बेड़ियां हों, हाकिमों का जब्रो-ज़ुल्म हो, क़तील की आवाज़ कभी खामोश नहीं हुई ! सरहदी इलाके हज़ारा के हरिपुर में 1919 के दिसंबर माह के चौबीसवें रोज जन्मे क़तील शिफ़ाई उर्दू अदब और फ़िल्मी दुनिया दोनों में एक बड़ा नाम है ! बहुत कम शख्सियत ऐसी खुशनसीब होती हैं कि जहां वे पैदा हुए, उसका नाम 'मुहल्ला क़तील शिफ़ाई' और जहां 1947 के बाद क़याम किया, उसका नाम 'क़तील शिफ़ाई स्ट्रीट' (लाहौर) है ! उनके चौदह शे'री मजमूए शाया हुए, इनमें हरियाली, गजर, जलतरंग, झूमर, छतनार, गुफ्तगू, पैराहन, आमोख्ता, अबाबील आदि शामिल हैं ! पाकिस्तान की पहली फिल्म 'तेरी याद' से नग्मानिगारी की शुरुआत की ! उन्होंने पाकिस्तानी फिल्मों के लिए तकरीबन ढाई हज़ार नग्मे लिखे और हिन्दुस्तानी फिल्मों के लिए भी नग्मानिगारी की ! उन्हें पाकिस्तान सरकार के 'नेशनल फिल्म अवार्ड' के अलावा शे'री मजमूए 'मुतरिबा' के लिए 'आदमजी अवार्ड' और 'छतनार' तथा 'पैराहन' के लिए 'अबासीन आर्ट्स काउन्सिल अवार्ड' से नवाज़ा गया ! क़तील शिफ़ाई की शायरी की एक बड़ी खूबी यह है कि वह 'जैसे भाव वैसी ही भाषा' बोलती है, फिर भी वे सादारंग के हिमायती हैं ! आइए रू-ब-रू हों उनकी एक ऐसी ही ग़ज़ल से -



दुनिया ने हमपे जब कोई इल्ज़ाम रख दिया
हमने मुक़ाबिल उसके तेरा नाम रख दिया

एक ख़ास हद पे आ गई जब तेरी बेरुखी
नाम उसका हमने गर्दिशे-अय्याम रख दिया

मैं लड़खड़ा रहा हूं तुझे देख - देख कर
तूने तो मेरे सामने इक जाम रख दिया

इनसान और देखे बग़ैर उसको मान ले
एक खौफ़ का बशर ने खुदा नाम रख दिया

अब जिसके जी में आए वही पाए रोशनी
हमने तो दिल जलाके सरे-आम रख दिया

क्या मस्लहत-शनास था वह आदमी 'क़तील'
मजबूरियों का जिसने वफ़ा नाम रख दिया

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शे'री मजमूए : काव्य संग्रह, गर्दिशे-अय्याम : समय-चक्र, बशर : मनुष्य, मस्लहत : परामर्श, सलाह, भेद, हित, भलाई; शनास : पहचानने वाला !

नासिर काज़मी

अविभाजित भारत के अम्बाला में 1925 के दिसंबर माह के आठवें रोज पैदा हुए नासिर ने बीस-इक्कीस बरस की उम्र में ही शायरी शुरू कर दी थी ! उनकी शुरूआती ग़ज़लों में से एक 'होती है तेरे नाम से वहशत कभी - कभी' बहुत मकबूल हुई ! इसका एक शे'र 'ऐ दोस्त हमने तर्के-मुहब्बत के बावुजूद / महसूस की है तेरी ज़रुरत कभी - कभी' थोड़े ही दिनों में उर्दू दुनिया में शोहरत पा गया और हर जुबान पर चढ़ गया ! उनके दोस्तों का कहना है, "इस शे'र की शोहरत के कारण नासिर इस शे'र से चिढ़ गया था !" यह दरअसल उनके मिजाज़ का आईना है ! नासिर के यहां छोटी-छोटी तस्वीरें जोड़ने से अहद की वीरानी की तस्वीर मुकम्मल होती है और एक ऐसा शायर सामने आता है, जिसमें अकेले घर, बंद दरवाज़े और राहगीरों से खाली राहगुज़ारें दिखाई देती हैं ! शायर इस बस्ती में अकेला मारा -मारा फिर रहा है ! वह कभी फ़ितरत से पनाह हासिल करता है और कभी अपनी तन्हाई और उदासी को अपना हमसफ़र बनाता है ! नासिर ने उदासी को 'आज के इंसान का भजन' कहा था, इसलिए कि उदासी ज़रपरस्त समाज की हिर्स से अलहदा होने की कोशिश थी ! कहना चाहिए कि नासिर ने अपने उदास अहद को उदास होने के आदाब सिखाए ! खुद बेहतरीन अफसानानिगार और नासिर के दोस्त इंतज़ार हुसैन ने लिखा है, "इस आशिक़ का मसलक था उदासी और रतजगा ! ... आधी रात के बाद नासिर 'मीर' को बिलउमूम भूल जाता था ! अब उसे मीराबाई याद आती थी ! कभी सूरदास का कोई भजन, कभी कबीर का कोई दोहा ! नासिर के शे'र के लहज़ा को जानने - समझने की खातिर 'मीर' के साथ इन लोगों को भी याद रखा जाए तो अच्छा है !" आइए, उनके कलाम से हम भी सीखें उदास होने और रतजगे के आदाब -


दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तिरी याद थी अब याद आया

आज मुश्किल था संभलना ऐ दोस्त
तू मुसीबत में अज़ब याद आया

दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तेरा वाद-ए-शब याद आया

तेरा भूला हुआ पैमाने - वफ़ा
मर रहेंगे अगर अब याद आया

फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शहरे-तरब याद आया

हाले - दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुखसत हुआ तब याद आया

बैठ कर साय - ए - गुल में 'नासिर'
हम बहुत रोये वो जब याद आया

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वहशत : भय, तर्के-मुहब्बत : प्रेम का परित्याग, अहद : युग, मुकम्मल : पूर्ण, फ़ितरत : स्वभाव, प्रकृति; पनाह : रक्षा, त्राण, बचाव; हमसफ़र : यात्रा के साथी, ज़रपरस्त : संपत्ति के लोलुप, भोग और भौतिकतावादी; हिर्स : लोभ, लिप्सा, लालच; अलहदा : अलग, आदाब : संस्कार, आचार; मसलक : रास्ता, मार्ग; 'मीर' : शायर मीर तक़ी 'मीर', बिलउमूम : अक्सर, प्रायः, बहुधा; लहज़ा : ढंग, तरीका, दस्तूर : परम्परा, तर्क : परित्याग, तोड़ना;वाद-ए-शब : रात का वादा, पैमाने-वफ़ा : प्रेम या निष्ठा का पैमाना, शहरे-तरब : प्रसन्न नगर, हाले-दिल : हृदय की स्थिति, रुखसत : विदा, साय-ए-गुल : फूलों की छांव

सलीम बेताब

जालंधर में 2 अप्रेल 1940 को पैदा हुए सलीम बेताब उन चंद शोअरा में शुमार हैं, जिन्होंने अपनी नौजवानी के दिनों में भी अपने अहद की खौफनाकियों के मुकाबले में हथियार नहीं डाले और अपना जो रास्ता चुना, उस पर हमेशा मज़बूत कदम रहे ! उन्होंने आधुनिक कहलाने के मोह में उबकाऊ बिम्बों और रूपकों की उठक-बैठक कभी नहीं की ! ताज्जुब यह है कि इसके बावजूद उनकी शायरी सादा अल्फ़ाज़ में भी ऐसे गहरे गुल खिलाती है कि पाठक हैरान रह जाता है ! पेशे से अध्यापक रहे सलीम मुल्क की आज़ादी के बाद पकिस्तान चले गए थे, लेकिन अपने वतन की मिट्टी, उसके तीज-त्यौहार, उसकी बोली उनकी शायरी में इतनी मुखर है कि उनके 'यहां होने से' भला कौन इनकार कर सकता है ! मज़ा लीजिए सलीम साहब की एक बेहतरीन भावाभियक्ति का -


आंख के कुंज में इक दश्ते-तमन्ना ले कर
अजनबी देस को निकले, दिले-तन्हा ले कर

देख लो, खोल के तारीक मकां की खिड़की
हम तेरे शहर में आए हैं उजाला ले कर

हम भी पहुंचे हैं गुलिस्तां में सुकूं की खातिर
आ गए ज़ेहन में तपता हुआ सहरा ले कर

अब निगाहों की जराहत को लिए सोचते हैं
क्यों गए बज़्म में हम जौके-तमाशा ले कर

कब से फरियाद-ब-लब, आब-तलब है शीरीं
आज फरहाद भी निकला नहीं तेशा ले कर

रू-सियह तेरे, बने चश्मो - चराग़े - ज़िन्दां
घूम अब शहर में तू, चेहरा-ए-ज़ेबा ले कर

इस चकाचौंध में अब मुझको दिखाई क्या दे
आ गए आप तो इक नूर का दरिया ले कर

अब भी हालात के शोलों में घिरा हूं बेताब
आ ही पहुंचा है कोई, फूल सा चेहरा ले कर

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अहद
: समय, दश्ते-तमन्ना : इच्छा का रेगिस्तान, दिले-तन्हा : अकेला हृदय, तारीक : अन्धेरा, मकां : मकान, घर; गुलिस्तां : उपवन, बाग़; ज़ेहन : मस्तिष्क, सहरा : रेगिस्तान, जराहत : घाव, बज़्म : सभा, जौके-तमाशा : तमाशे का शौक, आनंद; फ़रियाद-ब-लब : होंठों पर फ़रियाद लिए, आब-तलब : जल का इच्छुक, शीरीं व फरहाद : विख्यात प्रेमी-प्रेमिका, तेशा : कुदाल, रू-सियह : यहां अर्थ नापसंद से है, चश्मो - चराग़े - ज़िन्दां : कारागार के प्यारे, चेहरा-ए-ज़ेबा : सुन्दर चेहरा, नूर : प्रकाश !