Saturday, October 9, 2010

परवीन फ़ना सैयद

लाहौर में 1936 के सितम्बर माह की तीसरी तारीख को जन्मीं परवीन सैयद ने शायरी के लिए अपने इस्मे-शरीफ़ में तखल्लुस 'फ़ना' जोड़ कर उसे परवीन फ़ना सैयद बना लिया ! यहां उनके लिए अपनी जानिब से कुछ न कह, जनाब अहमद नदीम क़ासमी की टिप्पणी उद्धृत करना मुनासिब समझता हूं ! मुलाहिजा फरमाएं -"परवीन फ़ना सैयद की शायरी पाकीज़गी-ए-एहसास की शायरी है ! किसी भी मोड़ पर उन्होंने ग़ज़ल की लताफ़त और नजाकत को मज़रूह नहीं किया, बल्कि ग़ज़ल की तय की हुई रवायतों को पुख्ता किया है ! उनसे पहले खुद्दारी और गैरतमंदी की सम्त उर्दू ग़ज़ल में बहुत कम नुमायां हुई है ! वो तरक्की की तरफदार हैं, मगर हर नई शैली को आधुनिकता के नाम पर क़बूल कर लेना उन्हें मंजूर नहीं है ! चुनांचे वो प्रयोग जो आधुनिकता की फैशनेबुल नक़ल के नाम पर पॉपुलर हुए हैं, उन्हें बेचैन कर देते हैं ! बेयक़ीनी के इस बदसूरत दौर में परवीन फ़ना सैयद ने इंसानी दोस्ती से लबरेज़ शायरी की है !" 1975 के बाद से उन्होंने लिखना बहुत कम कर दिया और कभी-कभार उनका नया सृजन सामने आता है ! उनके दीवान 'हर्फ़े-वफ़ा' (1974) की सज्जा पकिस्तान के मशहूर आर्टिस्ट सादिकैन ने की, जो बहुत मकबूल हुई ! आइए पढ़ें उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल -


नामूसे-वफ़ा का पास रहा, शिकवा भी जुबां तक ला न सके
अन्दर से तो रोये टूट के हम, पर एक भी अश्क बहा न सके

साहिल तो नज़र आया लेकिन, तूफां में बला की शिद्दत थी
मौजों को मनाया लाख मगर, हम अपना दर्द सुना न सके

हम कहते-कहते हार गए, और दुनिया ने कुछ भी न सुना
जब दुनिया ने इसरार किया, हम अपना दर्द सुना न सके

कब हमने गुलिस्तां चाहा था, कब हमने बहारें मांगी थीं
इक गुल की तमन्ना थी हमको, वो भी तो चमन में पा न सके


और यह रुबाइयात -

गुलदान में कलियों को सजा कर देखा
हर फूल को कांटों से बचा कर देखा
उजड़ा ही नज़र आया मेरा घर - मैंने
हर सम्त को आईना घुमा कर देखा

सर है - इसे क़दमों में झुकाऊं क्योंकर
मैं हूं - मैं अना अपनी मिटाऊं क्योंकर
सच कह न सकूं तो झूट कैसे बोलूं
हर खोल पे इक खोल चढ़ाऊं क्योंकर

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पाकीज़गी-ए-एहसास : भावना की पवित्रता, लताफ़त : सूक्ष्मता, मज़रूह : घायल, रवायतों : परम्पराओं, सम्त : ओर, यहां आशय आकृति से है; जानिब : तरफ, ओर; नामूसे-वफ़ा : प्रेम की मर्यादा, पास : शील-संकोच, लिहाज़; अश्क : आंसू, साहिल : किनारा, तट; मौजों : लहरों, जानिबे-साहिल : किनारे की तरफ, इसरार : हठ, जिद; गुलिस्तां : उपवन, बाग़; गुल : फूल, चमन : उपवन, बाग़; आईना : दर्पण, अना : मैं अथवा स्व का भाव, अस्तित्व !

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