Sunday, October 10, 2010

असग़र गोंडवी

असग़र हुसैन उर्दू अदब में असग़र गोंडवी तखल्लुस से एक बड़ी पहचान रखते हैं ! उनके पुरखे गोरखपुर के थे, लेकिन असग़र की पैदाइश गोंडा में 1884 की पहली मार्च को हुई और अपने वालिद के तमाम ट्रांसफर्स के बावजूद वे ताउम्र गोंडा में ही मुकाम किए रहे ! वे जिगर मुरादाबादी के बहुत करीब रहे, यहां तक कि अपनी बेगम की छोटी बहन का निकाह जिगर से करा कर उनसे रिश्ता जोड़ लिया ! उन्होंने 1925 में लाहौर में भी कुछ वक्त बिताया और डॉ. इकबाल से इस दौरान बहुत कुछ सीखा भी, लेकिन उनके कलाम पर इसका कोई असर बिलकुल नज़र नहीं आता ! शायरी के लिए अपनी ही ज़मीन पर बेहद अपनी राह उन्होंने खुद बनाई और इसीलिए वे एक बड़े शायर हैं ! तंज़ और मजाहिया कलाम उनकी दिली पसंद थे ! उनका एक शे'र उनका फलसफा बयान करता है -

चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियां हों ज़िंदगी दुशवार हो जाए


दरअसल उन्होंने ज़िदगी में इतनी कठिनाइयां झेली थीं कि इनसे जुदा किसी राह पर चलना फिर उनको गवारा ही नहीं हुआ ! उनके दो दीवान 'निशात-ए-रूह' (1925) और 'सरूद-ए-ज़िन्दगी' (1935) शाया हुए ! ख़ास बात यह है कि उनकी नज्में भी ग़ज़लों की तरह ही मकबूल हुईं ! उन्होंने गद्य पर कलम चलाई, तो अखबारनवीसी भी की ! आइए, रू-ब-रू हों असग़र के कलाम से -


एक.


यह इश्क ने देखा है, यह अक्ल से पिन्हां है
कतरे में समंदर है, ज़र्रे में बयाबां है

ऐ पैकर-ए-महबूबी मैं किससे तुझे देखूं
जिसने तुझे देखा है वो दीदा-ए-हैरां है

सौ बार तेरा दामन हाथों में मेरे आया
जब आंख खुली, देखा, अपना ही गरेबां है

यह हुस्न की मौजें हैं या ज़ोश-ए-तबस्सुम है
उस शोख के होठों पर इक बर्क सी लरज़ाँ है

'असग़र' से मिले लेकिन 'असग़र' को नहीं देखा
अशआर में सुनते हैं कुछ कुछ वो नुमायां हैं


दो.


मस्ती में फ़रोग-ए-रुख-जानां नहीं देखा
सुनते हैं बहार आई, गुलिस्तां नहीं देखा

ज़ाहिद ने मेरा हासिल-ए-ईमां नहीं देखा
रुख पे तेरी ज़ुल्फ़ों को परेशां नहीं देखा

हर हाल में बस पेश-ए-नज़र है वही सूरत
मैंने कभी रू-ए-शब-ए-हिज्रां नहीं देखा

रूदाद-ए-चमन सुनता हूं इस तरह क़फ़स में
जैसे कभी आंखों से गुलिस्तां नहीं देखा

शाइस्ता-ए-सोहबत कोई उनमें नहीं 'असग़र'
काफ़िर नहीं देखा कि मुसलमां नहीं देखा 

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मौज-ए-हवादिस : दुर्घटनाओं की लहरें, पिन्हां : छुपा हुआ, क़तरा : बूंद, पैकर-ए-महबूबी : प्रेमिका का शरीर, दीदा-ए-हैरां : हैरान निगाहें, बर्क : बिजली, नुमायां : स्पष्ट, फ़रोग-ए-रुख-जानां : प्रेयसी के सुन्दर चेहरे का बढ़ता हुआ सौन्दर्य, ज़ाहिद : संत, उपदेशक; हासिल-ए-ईमां : धर्म का प्राप्य, रुख : चेहरा, परेशां : बिखरे हुए, पेश-ए-नज़र : नज़र के सामने, रू-ए-शब-ए-हिज्रां : वियोग की रात का चेहरा, रूदाद-ए-चमन : बाग़ का हाल (वैसे रूदाद का शाब्दिक अर्थ अफ़साना अथवा कहानी है), क़फ़स : पिंजरा, शाइस्ता-ए-सोहबत : साहचर्य के संस्कार !

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