रियासत टोंक में 1949 की 10 फरवरी को जन्मे शाहिद मीर खां उर्दू अदब में 'शाहिद' मीर के नाम से पहचाने जाते हैं ! हिंदी-उर्दू में समान दक्षता से ग़ज़ल कहने वाले 'शाहिद' का लहज़ा सूफ़ियाना और तर्ज़ सादा है, यही वज़ह है कि उनका क़लाम पहले परिचय में ही पाठक को अपना बना लेता है ! 'मौसम ज़र्द गुलाबों का' और 'कल्पवृक्ष' उनके बहुचर्चित काव्य संकलन हैं ! पहले संग्रह के लिए वे राजस्थान एवं बिहार उर्दू अकादमी तथा ग़ालिब अकादमी, बंगलौर से सम्मानित हो चुके हैं ! आइए, रू-ब-रू हों उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल से -
पढ़-लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए
घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए
घिर आई शाम हम भी चलें अपने घर की ओर
पंछी भी अपने-अपने ठिकाने निकल गए
बरसात गुज़री सरसों के मुरझा गए हैं फूल
उनसे मिलन के सारे बहाने निकल गए
पहले तो हम बुझाते रहे अपने घर की आग
फिर बस्तियों में आग लगाने निकल गए
खुद मछलियां पुकार रही हैं कहां है जाल
तीरों की आरज़ू में निशाने निकल गए
किन साहिलों पे नींद की परियां उतर गईं
किन जंगलों में ख्वाब सुहाने निकल गए
'शाहिद' हमारी आंखों का आया उसे ख्याल
जब सारे मोतियों के खजाने निकल गए
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आरज़ू : आकांक्षा, साहिल : तट, किनारा
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