Thursday, October 7, 2010

बलराज कोमल

सियालकोट के उद्दूर में 1928 के किसी रोज जन्मे बलराज कोमल ने अपनी शायरी में अनुभवों की भीड़ से गुज़रते हुए क़दम-क़दम पर एक नई अभिव्यक्ति और एहसास का साक्षात् कराया है ! अपने इर्द-गिर्द को अपने सृजन में समेटने का परिणाम है कि बलराज कोमल आज उर्दू अदब के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! सात काव्य-संग्रहों के अलावा अन्य विधाओं पर भी उनकी किताबें शाया हुई हैं ! उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, दिल्ली उर्दू अकादमी, शिक्षा मंत्रालय (भारत सरकार); और मीर अकादमी, लखनऊ उन्हें सम्मानित कर चुकी है ! अपनी कृति 'परिंदों भरा आसमान' पर उन्हें 1985 में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया !


बारिशों में ग़ुस्ल करते सब्ज पेड़
धूप में बनते - संवरते सब्ज़ पेड़

किस कद्र तश्हीरे-गम से दूर थे
चुप्के-चुप्के आह भरते सब्ज़ पेड़

दूर तक रोती हुई खामोशियां
रात के मंज़र से डरते सब्ज़ पेड़

दश्त में वो राहरौ का ख्वाब थे
घर में कैसे पांव धरते सब्ज़ पेड़

दोस्तों की सल्तनत से दूर तक
दुश्मनों के ढोर चरते सब्ज़ पेड़

कर गए बे-मेहर मौसम के सुपुर्द
रफ्ता-रफ्ता आज मरते सब्ज़ पेड़

_______________________________

ग़ुस्ल : स्नान, तश्हीरे-गम : पीड़ा के विज्ञापन से, मंज़र : दृश्य, दश्त : जंगल, राहरौ : यात्री, सल्तनत : साम्राज्य, बे-मेहर : निर्दय, रफ्ता-रफ्ता : शनैः - शनैः

No comments:

Post a Comment