भोपाल में 1939 में जन्मे उबैदुल्ला 'अलीम' आधुनिक उर्दू शायरी के प्रतिनिधि कवि हैं ! सादा लहज़े में बड़ी गहरी बात कह जाने का कमाल उनकी क़लम को हासिल है ! इसी वज़ह से उनका ज्यादातर रचना-कर्म सदा चर्चा का विषय बनता रहा है ! ग़ज़ल की कोई नई भाषा नहीं गढ़ते हुए भी 'अलीम' ने अपने लिए नए ज़मीन-ओ-आसमान तलाशे हैं और यही एक कारण उन्हें शायरों की भीड़ में भी अलग और अकेली शख्सियत का रूतबा अता करता है ! आइए, पढ़ें 'अलीम' की एक ऐसी ही सादा अल्फ़ाज़ से बुनी, लेकिन पुरअसर ग़ज़ल -
जवानी क्या हुई, इक रात की कहानी हुई
बदन पुराना हुआ, रूह भी पुरानी हुई
कोई अज़ीज़ नहीं मासवा-ए-जात हमें
अगर हुआ है, तो यूं जिंदगानी हुई
न होगी खुश्क कि शायद वो लौट आए फिर
ये किश्त गुज़ारे हुए अब्र की निशानी हुई
तुम अपने रंग नहाओ मैं अपनी मौज उडूं
वो बात भूल भी जाओ, जो आनी-जानी हुई
मैं उसको भूल गया हूं, वो मुझको भूल गया
तो फिर ये दिल पे क्यों दस्तक़ सी नागहानी हुई
कहां तक और भला जां का हम ज़ियां करते
बिछड़ गया है तो, ये उसकी मेहरबानी हुई
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अज़ीज़ : प्रिय, मासवा-ए-जात : निज के सिवा, किश्त : खेती, अब्र : बादल, नागहानी : अकस्मात, अचानक; ज़ियां : हानि, नुकसान !
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