Saturday, October 9, 2010

अमीक़ 'हन्फी'

महो छावनी में 1928 में जन्मे अमीक़ 'हन्फी' उन कुछ शोअरा में हैं, जो पुरानी पीढ़ी के प्रतिनिधि होते हुए भी आधुनिक उर्दू शायरी की रहनुमाई भी उसी कौशल से करते हैं ! उनके सृजन में उर्दू अदब की पारंपरिक धड़कनें मौजूद हैं, तो आधुनिक उर्दू जगत भी उन्हें अपनी जमात में खड़ा पाता है ! अपनी ग़ज़लों में हिंदी के विशिष्ठ शब्दों के खूबसूरत प्रयोग उन्हें उर्दू काव्य जगत के प्रयोगवादी रचनाकारों की पांत में ला खड़ा करते हैं ! यहां प्रस्तुत है उनकी एक छोटी, लेकिन साहित्य जगत की कसौटियों की दृष्टि से बड़ी ग़ज़ल ! आनंद उठाएं !


मैं भी कब से चुप बैठा हूं, वो भी कब से चुप बैठी है
है ये विसाल की रस्म अनोखी, ये मिलने की रीत नई है

वो जब मुझको देख रही थी, मैंने उसको देख लिया था
बस इतनी सी बात थी लेकिन बढ़ते-बढ़ते कितनी बढ़ी है

बेसूरत बेज़िस्म आवाज़ें अन्दर भेज रही हैं हवाएं
बंद हैं कमरे के दरवाज़े लेकिन खिड़की खुली हुई है

मेरे घर की छत के ऊपर सूरज आया, चांद भी उतरा
छत के नीचे के कमरों की जैसी थी, औक़ात वही है

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शोअरा : शायर का बहुवचन, विसाल : मिलन, बेसूरत : जिसका कोई चेहरा न हो, अनजान, बेजिस्म : जिसका कोई शरीर न हो, औक़ात : स्थिति

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