Saturday, October 9, 2010

'हसन' कमाल

लखनवी सरजमीं पर 1943 में जन्मे 'हसन' कमाल एक शायर के रूप में जितने जाने जाते हैं, उतनी ही बड़ी पहचान उन्हें फ़िल्मी गीतकार और टीवी शख्सियत के रूप में हासिल है ! 'हसन' अपनी शायरी में अपने दौर की बात करते हैं, लेकिन उसमें आप गुज़रे ज़माने की झलक और आने वाले कल की आहटें भी साफ़ महसूस कर सकते हैं ! मशहूर लखनवी नज़ाकत का असर उनकी शख्सियत में भले हो, उनकी शायरी कटु यथार्थ से भी दिल खोल कर रू-ब-रू होती है ! इसके बावजूद इस मुठभेड़ का 'हसन' का अपना अंदाज़ है, निहायत ही निजी अंदाज़ ! आइए, हम भी शिरकत करें 'हसन' कमाल के इस निहायत निजी, लेकिन सर्वकालिक और सार्वजनीन संसार में -



किरनों का जाल फेंका, उठा ले गई मुझे
इक धूप रूप की थी, उड़ा ले गई मुझे

पत्थर बना तो ज़द पे रहा ठोकरों की मैं
जब खाक़ हो गया, तो हवा ले गई मुझे

मैं शोरो-गुल से शहर के घबरा चला था कुछ
खामोशियों की एक सदा ले गई मुझे

यूं भी पड़ा हुआ था मैं बिखरी किताब सा
फिर कई हवा का दोष उड़ा ले गई मुझे

साहिल पे दर्द के मैं उसे ढूंढता रहा
वो मौज बन के आई बहा ले गई मुझे

कल तक मैं अपने आप में मौजूद था मगर
उसकी निगाह मुझसे चुरा ले गई मुझे

आवारगी लिखी थी मुक़द्दर में जब 'हसन'
मैं भी गया जिधर ये सबा ले गई मुझे

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ज़द : निशाना, लक्ष्य; सदा : ध्वनि, आवाज़; मौज : लहर, सबा : प्रातःकालीन शीतल हवा !

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