जिला गुडगाँव की छोटी सी जगह भान्गरोला में 1924 के किसी रोज़ पैदा हुए बिमल कृष्ण 'अश्क' उर्दू साहित्य संसार में एक जाना-पहचाना नाम हैं ! नए बिम्ब विधान और नए प्रतीकों की बदौलत 'अश्क' ने ग़ज़ल को नई ऊंचाइयां तो अता की हीं, यथार्थ चित्रण के कई प्रयोग भी किए ! दरअसल उनकी समूची शायरी में वर्तमान की धडकनें हैं, तिस पर भी वह सार्वजनीन और सर्वकालिक भी है ! यही 'अश्क के सृजन की वह बड़ी खूबी है, जो उन्हें एक महान शायर बनाती है !
डूब गए हो देख के जिनमें ठहरा, गहरा, नीला पानी
आंख झपकते मर जाएगा 'अश्क' उन्हीं आंखों का पानी
तू, मैं, फूल, सितारा, मोती सब उस दरिया की मौजें
जैसा - जैसा बर्तन, वैसा - वैसा भेष बदलता पानी
बारह मास हरी टहनी पर पीले फूल खिला करते हैं
दुख के पौदे को लगता है जाने किस दरिया का पानी
बीती उम्र सरहाना सींचे, आंखें रोती हैं कन्नियों को
दुख का सूरज पीकर डूबा दोनों दरियाओं का पानी
चौखट-चौखट आंगन-आंगन, खट्टी छाछ, कसैला मक्खन
गांव के हर घर में दर आया बस्ती का मटमैला पानी
तन का लोभी क्या जाने, तन-मन का दुख दोनों तीरथ हैं
पाक-बदन काशी की मिट्टी, आंसू गंगा मां का पानी
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अश्क : आंसू, किन्तु यहां यह इस शे'र की विशेषता है कि शायर ने अपने तखल्लुस का इस प्रकार उपयोग किया है, मौजें : लहरें, दर आया : आ गया, पाक-बदन : पवित्र शरीर
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