Saturday, October 9, 2010

बशर नवाज़

औरंगाबाद में 1935 में पैदा हुए बशारत नवाज़ खां उर्दू काव्य जगत में 'बशर नवाज़' तखल्लुस से एक बड़ी पहचान रखते हैं ! 'बशर' की शायरी एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें ज़ाहिराना तौर पर रंग-बिरंगे फूल हैं, तो कटु यथार्थ रुपी कांटों से भी नहीं बचा गया है ! वस्तुतः 'बशर' की तमाम शायरी अपने समय से काफी आगे जाकर भविष्य की नब्ज़ पर हाथ रख कर उसे संवारने का सन्देश देती है ! दरअसल 'बशर' का सोच और कलाम का फलक इतना विस्तृत है कि आप उनकी ग़ज़लों में आने वाले समय की धड़कनों को साफ़ सुन सकते हैं ! आइए पढ़ें उनकी एक ऐसी ही ग़ज़ल -


पत्थर का मेरी सम्त तो आना जरूर था
मैं ही गुनाहगारों में इक बेक़सूर था

सचाई आग ठहरी तो लब जल के रह गए
हक़गोई पर हमें भी कभी क्या ग़रूर था

शबनम पहन के निकले थे शोलों के क़ाफिले
देखे तहे-लिबास ये किसको शऊर था

बैठा हुआ था कोई सरे - राहे - आरज़ू
इक उम्र की थकन से बदन चूर-चूर था

ठहरा हुआ है एक ही मंज़र निगाह में
इक नीम-बा दरीचा था, सैलाबे-नूर था

बन कर ज़बान बोल रहा था बदन तमाम
समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़सूर था

देखा क़रीब से तो वो मौज़े - सराब थी
जिस आब-जू का चर्चा 'बशर' दूर-दूर था

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सम्त : ओर, दिशा; मैं ही गुनाहगारों में इक बेक़सूर था : संकेत अरब देशों में प्रचलित संगशारी की प्रथा की तरफ है, जिसमें अपराधी को पत्थर मार-मार कर मृत्यु दंड दिया जाता है, हक़गोई : सच बोलना, शबनम : ओस, तहे-लिबास : पोशाक के नीचे, शऊर : बोध, सरे-राहे-आरज़ू : इच्छा रुपी मार्ग में, मंज़र : दृश्य (प्रसंगवश - मंज़र का बहुवचन 'मनाज़िर' होता है ), नीम-बा : आधा खुला (अर्थात नीम - आधा, बा - खुला), दरीचा : खिड़की, सैलाबे-नूर : प्रकाश की बाढ़, फ़हम : बुद्धि,मौज़े-सराब : मरीचिका की लहर, आब-जू : नदी

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