जाने किस ख्वाब का सय्याल नशा हूं मैं भी
उजले मौसम की तरह एक फ़ज़ा हूं मैं भी
राह पामाल थी, छोड़ आया हूं साथी सोते
कोरी मिट्टी का गुनहगार हुआ हूं मैं भी
कैसी बस्ती है, मकीं जिसके हैं बच्चे बूढ़े
क्या मुकद्दर था, कहां आके रुका हूं मैं भी
एक बेचेहरा सी मख्लूक है चारों जानिब
आईनो, देखो मुझे, मस्ख़ हुआ हूं मैं भी
हाथ शमशीर पे है, ज़ेहन पसो-पेश में है
'राज' किन यारों के माबैन खड़ा हूं मैं भी
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सय्याल : तरल, फ़ज़ा : वातावरण, पामाल : दलित, दबी-कुचली; मकीं : निवासी, रहने वाले; मख्लूक : प्राणी वर्ग, जानिब : ओर, मस्ख़ : विकृत, टूटा; शमशीर : तलवार, ज़ेहन : मस्तिष्क, पसो-पेश : असमंजस, माबैन : दरवाज़े पर !
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