Saturday, October 9, 2010

राजनारायन 'राज'

अविभाजित भारत के बिलोचिस्तान के लोरालाई में 1930 में जन्मे राजनारायन 'राज' उर्दू काव्य जगत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! उनकी शायरी, विशेषकर ग़ज़लों में रिवायती धड़कनों अर्थात फ़ारसीयत की छाप को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है ! इसके बावजूद अपने इर्द-गिर्द और समाजी हलचलों पर वे पैनी नज़र करते चलते हैं ! वक़्त की जरूरतें और बदलाव के स्वर भी उनकी शायरी में पूरी तरह मुखर हैं ! आइए, आनन्द लें राजनारायन 'राज' की एक ऐसी ही ग़ज़ल का -



जाने किस ख्वाब का सय्याल नशा हूं मैं भी
उजले मौसम की तरह एक फ़ज़ा हूं मैं भी

राह पामाल थी, छोड़ आया हूं साथी सोते
कोरी मिट्टी का गुनहगार हुआ हूं मैं भी

कैसी बस्ती है, मकीं जिसके हैं बच्चे बूढ़े
क्या मुकद्दर था, कहां आके रुका हूं मैं भी

एक बेचेहरा सी मख्लूक है चारों जानिब
आईनो, देखो मुझे, मस्ख़ हुआ हूं मैं भी

हाथ शमशीर पे है, ज़ेहन पसो-पेश में है
'राज' किन यारों के माबैन खड़ा हूं मैं भी

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सय्याल 
: तरल, फ़ज़ा : वातावरण, पामाल : दलित, दबी-कुचली; मकीं : निवासी, रहने वाले; मख्लूक : प्राणी वर्ग, जानिब : ओर, मस्ख़ : विकृत, टूटा; शमशीर : तलवार, ज़ेहन : मस्तिष्क, पसो-पेश : असमंजस, माबैन : दरवाज़े पर !

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