आगरा के निकटवर्ती मोहम्मदाबाद में 1928 में जन्मे 'माजिद' उर्दू काव्य जगत में एक चर्चित और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ! उनके सृजन में लोक, इर्द-गिर्द के बिम्ब और यथार्थ मुखर हैं, किन्तु उनका अपना मुहावरा और बात करने का अपना अलग ढंग उर्दू अदब में उन्हें जुदा मुकाम अता करता है ! ऐसा नहीं है कि 'माजिद' की शायरी उर्दू काव्य परंपरा की इश्किया धारा से सर्वथा दूर है और उसके तमाम प्रतीक जुदा हैं, लेकिन उनका अपना अंदाज़े-बयां और अल्फ़ाज़ के चयन में हिंदी-उर्दू के झगड़े को दूर का सलाम कहना उनके कलाम को एक ऐसी अनोखी रवानी देता है कि पढने-सुनने वाला उन्हें सलाम करता है ! आइए, पढ़ें उनकी एक ऐसी ही ग़ज़ल और सलाम करें उनके अनोखे अंदाज़ को !
वो ज़र्द चेहरा मुअत्तर निगाह जैसा था
हवा का रूप था, बोलो तो आह जैसा था
अलील वक्त की पोशाक था बुखार उसका
वो एक जिस्म था, लेकिन कराह जैसा था
भटक रहा था अंधेरों में दर्द का दरिया
वो एक रात का जुगनू था, राह जैसा था
गली के मोड़ पर ठहरा हुआ था इक साया
लिबास चुप का बदन पर निबाह जैसा था
चला तो साए की मानिंद साथ-साथ चला
रुका तो मेरे लिए मेहरो - माह जैसा था
क़रीब देख के उसको ये बात किससे कहूं
ख़याल दिल में जो आया, गुनाह जैसा था
बहुत सी बातों पे मजबूर था वो हम से भी
तकल्लुफात में आलम निबाह जैसा था
खबर के उड़ते ही यूं ही मर गया 'माजिद'
पुराने घर का समा, जश्ने-निगाह जैसा था
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मुअत्तर : सुगन्धित, अलील : बीमार, मेहरो - माह : सूर्य और चन्द्र, तकल्लुफात : औपचारिकताएं, आलम : स्थिति, समा : दृश्य, जश्ने-निगाह : दृष्टि का उत्सव
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ReplyDeleteKya juda andaz hai Majid Ul Baqri Sahib ka.
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