जालंधर में 2 अप्रेल 1940 को पैदा हुए सलीम बेताब उन चंद शोअरा में शुमार हैं, जिन्होंने अपनी नौजवानी के दिनों में भी अपने अहद की खौफनाकियों के मुकाबले में हथियार नहीं डाले और अपना जो रास्ता चुना, उस पर हमेशा मज़बूत कदम रहे ! उन्होंने आधुनिक कहलाने के मोह में उबकाऊ बिम्बों और रूपकों की उठक-बैठक कभी नहीं की ! ताज्जुब यह है कि इसके बावजूद उनकी शायरी सादा अल्फ़ाज़ में भी ऐसे गहरे गुल खिलाती है कि पाठक हैरान रह जाता है ! पेशे से अध्यापक रहे सलीम मुल्क की आज़ादी के बाद पकिस्तान चले गए थे, लेकिन अपने वतन की मिट्टी, उसके तीज-त्यौहार, उसकी बोली उनकी शायरी में इतनी मुखर है कि उनके 'यहां होने से' भला कौन इनकार कर सकता है ! मज़ा लीजिए सलीम साहब की एक बेहतरीन भावाभियक्ति का -
आंख के कुंज में इक दश्ते-तमन्ना ले कर
अजनबी देस को निकले, दिले-तन्हा ले कर
देख लो, खोल के तारीक मकां की खिड़की
हम तेरे शहर में आए हैं उजाला ले कर
हम भी पहुंचे हैं गुलिस्तां में सुकूं की खातिर
आ गए ज़ेहन में तपता हुआ सहरा ले कर
अब निगाहों की जराहत को लिए सोचते हैं
क्यों गए बज़्म में हम जौके-तमाशा ले कर
कब से फरियाद-ब-लब, आब-तलब है शीरीं
आज फरहाद भी निकला नहीं तेशा ले कर
रू-सियह तेरे, बने चश्मो - चराग़े - ज़िन्दां
घूम अब शहर में तू, चेहरा-ए-ज़ेबा ले कर
इस चकाचौंध में अब मुझको दिखाई क्या दे
आ गए आप तो इक नूर का दरिया ले कर
अब भी हालात के शोलों में घिरा हूं बेताब
आ ही पहुंचा है कोई, फूल सा चेहरा ले कर
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अहद : समय, दश्ते-तमन्ना : इच्छा का रेगिस्तान, दिले-तन्हा : अकेला हृदय, तारीक : अन्धेरा, मकां : मकान, घर; गुलिस्तां : उपवन, बाग़; ज़ेहन : मस्तिष्क, सहरा : रेगिस्तान, जराहत : घाव, बज़्म : सभा, जौके-तमाशा : तमाशे का शौक, आनंद; फ़रियाद-ब-लब : होंठों पर फ़रियाद लिए, आब-तलब : जल का इच्छुक, शीरीं व फरहाद : विख्यात प्रेमी-प्रेमिका, तेशा : कुदाल, रू-सियह : यहां अर्थ नापसंद से है, चश्मो - चराग़े - ज़िन्दां : कारागार के प्यारे, चेहरा-ए-ज़ेबा : सुन्दर चेहरा, नूर : प्रकाश !
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