Saturday, October 9, 2010

'होश' तिर्मज़ी

अम्बाला के साढोहरा में 1941 में जन्मे सैयद सिब्ते हसन उर्दू काव्य संसार में 'होश' तिर्मज़ी के नाम से मशहूर हैं ! 'होश' की शायरी एक ओर जहां ठेठ रिवायती ख़ाके में ढली नज़र आती है, वहीं दूसरी ओर वे उर्दू अदब की ताज़ा मौज़ों पर सवार भी दिखाई देते हैं ! यही वज़ह है कि वे शायरी में परम्परागत अल्फ़ाज़, बिंब और प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत से करते हैं, लेकिन इसके बावजूद अपने क़लाम को कठिन चीज़ों से बड़े कौशल से बरी भी रखते हैं यानी उनके क़लाम में आमफहम बनाए रखने के मंसूबे साफ़ देखे जा सकते हैं ! कहा जा सकता है कि 'होश' की शायरी में, विशेषकर ग़ज़लों में एक पूरी रिवायत सांस लेती महसूस की जा सकती है ! आइए, महसूस करें ऐसी ही एक खूबसूरत और सादालफ्ज़ ग़ज़ल की पुरअसर खुशबू -


देखे हैं जो ग़म दिल से भुलाए नहीं जाते
इक उम्र हुई याद के साए नहीं जाते

अश्कों से खबरदार कि आंखों से न निकलें
गिर जाएं ये मोती तो उठाए नहीं जाते

हर जुम्बिशे-दामाने-जुनूं जाने-अदब है
इस राह में आदाब सिखाए नहीं जाते

हम भी शबे - गेसू के उजालों में रहे हैं
क्या कीजिए दिन फेर के लाए नहीं जाते

शिकवा नहीं, समझाए कोई चारागरों को
कुछ ज़ख्म हैं ऐसे कि दिखाए नहीं जाते

ऐ 'होश', ग़मे-दिल के चिराग़ों की है क्या बात
इक बार जला दो, तो बुझाए नहीं जाते

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रिवायत : परम्परा, किसी के मुंह से सुनी बात ज्यों की त्यों किसी से कहना, इस्लामी परिभाषा में हज़रत पैग़म्बर (हज़रत मोहम्मद सल.) के मुख से सुनी हुई बात अन्य को उन्हीं के अल्फ़ाज़ में सुनाना, हदीस बयान करना; सादालफ्ज़ : सरल शब्दों में, जुम्बिशे-दामाने-जुनूं : उन्मादग्रस्त के दामन का हिलना, जाने-अदब : शिष्टाचार की जान, आदाब : शिष्टाचार, शबे-गेसू : बालों की रात, यहां संकेत प्रेयसी की जुल्फों के सान्निध्य में रात गुज़ारने से है; चारागर : चिकित्सक, ग़मे-दिल हृदय की पीड़ा !

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