Tuesday, October 5, 2010

बुध्द की स्वतंत्रता

अंग्रेजी कहानी

मालोक

अनुवाद : नीरजा सक्सेना


बहुत समय पहले हिमालय की घाटियों के एक गांव के निवासी बुध्द के अनुयायी थे। वह गांव पूरी दुनिया से अलग शान्त और संपूर्णता का जीवन व्यतीत कर रहा था। बहुत अधिक ऊंचाई पर होने के कारण गांववासियों को अधिक समय तक प्रचंड शीत का सामना करना पडता था। इसलिए ग्रीष्म ॠतु वह समय था जब गांववासी इकट्ठे होकर भोजन और जलाने की लकडी क़ा उचित प्रबन्ध कर के अपने को आने वाली शीत लहरों के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लेते थे।

गांव के मध्य में एक छोटा सा मठ था, भगवान बुध्द की एक बहुत पुरानी विशालकाय लकडी क़ी प्रतिमा से सुसज्जित। दैनिक प्रार्थना सभा के अतिरिक्त मठ गांव के निवासियों की सुरक्षा तथा उन्हे तीक्ष्ण तथा तूफानी मौसम की चपेटों में सुविधाओं की आपूर्ति भी करता था। प्रतिदिन मठाधीश लामा गांववासियों के साथ बुध्द प्रतिमा की धार्मिक रीति से पूजा में हिस्सा लेते थे। नवासी वर्षीय लामा स्वयं बुध्द प्रतिमा के साप्ताहिक मस्तकाभिषेक को पूर्ण समर्पित भाव से समस्त धार्मिक रीतियों का निर्वाह करते थे। ये अतिश्योक्ति नहीं होगी कि लामा समस्त जन के मार्गदर्शक, नेता तथा प्रेरणास्रोत थे। सबको यह पता था कि स्वयं लामा को बुध्द की प्रतिमा से ही प्रेरणा मिली है - उनकी जीवन शक्ति का स्रोत। गांव में यह अफवाह भी थी कि रात के सन्नाटे में बुध्द की प्रतिमा सजीव हो लामा में ज्ञान का संचार करती थी।

एक बार शीत का आगमन अपने समय से पूर्व ही हो गया और पर्याप्त भोजन और जलाने की लकडी क़ा प्रबन्ध नही हो पाया। शीत के पूर्व आगमन ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया जब उसकी त्रीवता बढती ही गई। गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति ने अपने अनुभवों के पन्ने पलटते हुए कहा कि शीत की जो प्रचंडता का अनुभव इस बार सबको करना पड रहा है उसका विवरण मात्र ही उन्होने अपने पुरखों से सुना हुआ है। इस स्थिति के विषय में बात करने के लिए सब लोग मठ में एकत्र हो गए और आग जलाकर उन्होने शीत के प्रकोप को कम करने का प्रयत्न किया। लेकिन आग की गर्मी उस मौसम में गरमाहट नहीं ला सकी और लकडी क़ा अंतिम टुकडा भी उस हवन में स्वाहा हो गया। शीत अपनी तीव्रता को बढाता जा रहा था और सब लोगो ने उससे बचने के लिए कम्बलों और शॉलों की शरण ली। भोजन की कमी ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया।

लकडी क़ा एक-एक टुकडा अग्नि को समर्पित हो गया था और मौसम की तीक्ष्णता मनुष्य को कितना निठुर बना देती है कि अब सबको शीत से बचने का एकमात्र उपाय ही दिखाई दे रहा था - बुध्द की लकडी क़ी प्रतिमा जिसे जला कर वह शीत से अपने को बचा सकते थे। लेकिन किसी की भी यह हिम्मत नहीं थी कि वह लामा से इस विषय में पूछ सके, जो इस समय अपने कमरे में ध्यान में लीन थे। लेकिन जब मृत्यु का भय लोगो के चेहरे पर साफ दिखााई देने लगा तो यह सब उनके लिए असहनीय हो गया और एकमत हो उन्होने गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति से निवेदन किया कि वह जाकर लामा से इस विषय में बात करें। वह बुजुर्ग व्यक्ति लामा के निवास पर गया और ध्यानमग्न लामा से अपनी अन्तर्मन की समस्त शक्ति एकत्र करके कंपकपाती आवाज में सारी स्थिति से उन्हे अवगत कराया -

'' हमने अपनी सारी इकट्ठा की हुई लकडियां जला दी है, यहां तक की घर का सामान तथा बच्चों के खिलौने भी अग्नि को समर्पित कर दिए है। अब हमारे बचने का कोई भी उपाय नजर नही आ रहा है और हमारी मृत्यु निश्चित है। आप हमारा मार्गदर्शन कीजिए नहीं तो हमारा विनाश निश्चित है।हम क्या करें?''

लामा ने उसे स्नेह से देखा और अपने पलंग से उठ खडे हुए। वह शान्त भाव से मठ के मध्य में पूजागृह की ओर चल पडे, वह वृध्द व्यक्ति एक मासूम बच्चे की तरह उनके पीछे चल पडा। लामा उस पूजागृह में पहुंचे जहां समस्त गांववासी दुबके पडे थे। बुध्द की प्रतिमा के प्रति उनका स्नेह और श्रध्दा उनकी आंखो से साफ दिखाई दे रहा था।

प्रतिमा के पास पहुंच कर वह आदरपूर्वक उनके आभूषण उतारने लगे। और फिर श्रध्देय प्रतिमा को लकडी क़े टुकडों के रूप में बदल दिया। गांववासी, लामा को किंकर्तव्यविमूढ हो देखते रह गए, जो बिना किसी शंका और हिचकिचाहट के लकडियों को एकत्र कर रहे थे जो कभी बुध्द की प्रतिमा में मस्तक के रूप से सुशोभित थे और फिर उन्हे अग्नि के अवशेषों को समर्पित कर दिया ।

कुछ ही समय में अग्नि फिर से जीवंत हो उठी, लोगो के मन में जीवन के प्रति एक नए उत्साह के आगमन के साथ। जब लामा अपने निवास की ओर वापस जाने लगे तो उन्होने मधुर स्वर में मुस्कराते हुए कहा -

'' आज हमारे प्रिय बुध्द हमारे में विलीन हो गए है।''

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