Tuesday, October 5, 2010

मिर्ज़ा ग़ालिब


'हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे / कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और' - मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस शे'र में कोई अतिशयोक्ति नहीं की, बल्कि हकीकत बयान की है ! उर्दू काव्य-गगन में छोटे-बड़े लाखों सितारे चमक बिखेर रहे हैं, लेकिन इनमें से अक्सर की रौशनी को मंद कर देने वाला माहताब सिर्फ एक है और वह हैं 'ग़ालिब' ! मिर्ज़ा का जन्म 1796 में आगरा में हुआ ! मिर्ज़ा असदुल्लाह खां से 'असद' और फिर 'ग़ालिब' बनने तक मिर्ज़ा नौशा ने तमाम उतार-चढाव देखे थे और वही सब उनकी शायरी का असल रंग है ! देखिए उनके कलाम का एक अनूठा रंग -



आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकाम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक

हमने माना कि तगाफ़ुल न करोगे, लेकिन
खाक़ हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक

परतव-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होने तक

यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सत-ए-हस्ती गाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक

गम-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज़
शमअ हर रंग में जलती है सहर होने तक

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माहताब : चन्द्रमा, दाम हर मौज : प्रत्येक तरंग का जाल, हल्क़ा-ए-सदकाम-ए-नहंग : सौ जबड़ों वाले मगरमच्छ का घेरा, क़तरे : बूँद, आशिक़ी : प्रेम, सब्र-तलब : जिसके लिए धैर्य आवश्यक हो, तगाफ़ुल : उपेक्षा, परतव-ए-खुर : सूर्य का प्रतिबिम्ब, बेश : अधिक, फुर्सत-ए-हस्ती : जीने की अवधि, रक्स-ए-शरर : चिनगारी का नृत्य, गम-ए-हस्ती : जीवन के दुःख, जुज़ : सिवाय, मर्ग : मृत्यु, सहर : भोर

1 comment:

  1. hum urdu bahot acche nahi samajhate, agar aap har sher ka matalab samajhayenge to achha hoga...

    apaka blog bohotahi badhinya hai....

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