मुग़ल साम्राज्य के आखिरी दिनों में कश्मीर से दिल्ली आकर शाही हकीम बने नामदार खां के पौत्र 'मोमिन' (पिता का नाम हकीम गुलाम नबी) स्वयं एक कुशल चिकित्सक और मशहूर ज्योतिषी भी थे ! दिल्ली में 1800 में जन्मे मोमिन का उर्दू काव्य जगत में विशेष महत्त्व है ! उनका क्षेत्र मुख्यतः प्रेम-वर्णन होते हुए भी, इसमें जो तड़प उन्होंने पैदा की, वह सिर्फ उन्हीं का हिस्सा है ! अभिव्यक्ति की मौलिकता और भाव पक्ष की प्रबलता की वज़ह से उर्दू अदब की तबारीख (इतिहास) में वे एक अमर शायर के रूप में दर्ज हैं !
वो जो हममें तुममें करार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझपे थे पेश्तर, वो करम जो था मेरे हाल पर
मुझे याद सब है ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो नए गिले वो शिकायतें, वो मज़े-मज़े की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो कि न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई, कि तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयां से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो कि न याद हो
जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूं 'मोमिन'-ए-मुब्तिला, तुम्हें याद हो कि न याद हो
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पेश्तर : पूर्व में, पहले; हिकायतें : कहानियां, आशना : परिचित, बावफा : निष्ठावान, मुब्तिला : डूबा हुआ
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