Tuesday, October 5, 2010

गुलाम जीलानी 'असगर'

अटक के छोटे से स्थान तगानक में 1918 में जन्मे गुलाम जीलानी उर्दू अदब में 'असगर' तखल्लुस (उपनाम) से पहचाने जाते हैं ! उनका ज्यादातर कलाम पढ़ कर इस कथन पर सहज विश्वास कर लेने को जी चाहता है कि 'शायरी पैगम्बरी का हिस्सा होती है' ! 'असगर' की शायरी में आने वाले कल की आहटें साफ़ सुनाई देती हैं ! दरअस्ल वे अपने समय की बात करते हुए भी अपनी नज़र बहुत आगे तक रखते हैं, इसीलिए वे अब भी प्रासंगिक हैं और हमेशा रहेंगे ! लुत्फ़ उठाइए उनकी एक नायाब ग़ज़ल का -



कितने दरिया इस नगर से बह गए
दिल के सहरा खुश्क फिर भी रह गए

आज तक गुमसुम खड़ी हैं शहर में
जाने दीवारों से तुम क्या कह गए

एक तू है, बात भी सहता नहीं
एक हम हैं तेरा गम भी सह गए

तुझसे जगबीती की सब बातें कहीं
कुछ सुखन नागुफ्तनी भी रह गए

तेरी मेरी चाहतों के नाम पर
लोग कहने को बहुत कुछ कह गए

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सहरा : मरुस्थल, सुखन : बातें, बोल; नागुफ्तनी : अनकहा !

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