Tuesday, October 5, 2010

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सियालकोट में 1911 में जन्मे फ़ैज़ ने 1928 में पहली ग़ज़ल और 1929 में पहली नज़्म कही ! यह थी उपलब्धियों भरी उस दास्तान की शुरुआत, जो आज 'नक्श-फरियादी', 'दस्ते-सबा', 'जिन्दांनामा', 'सरे-वादिए-सीना', 'शामे-शहरे-यारां', 'मेरे दिल मेरे मुसाफिर' आदि अनेक किताबों के रूप में हमारे सामने है ! उर्दू की प्रगतिशील धारा के आधार स्तंभों में से एक फ़ैज़ की खासियत है 'रोमानी तेवर में भी खालिस इन्किलाबी बात' कह जाना ! लीजिए फ़ैज़ की एक ऐसी ही ग़ज़ल का आनंद -



रंग पैराहन का, खुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम
मौसमे-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम

फिर नज़र में फूल महके, दिल में फिर शमएं जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम

अब किसी लैला को भी इकरारे-महबूबी नहीं
इन दिनों बदनाम है हर एक दीवाने का नाम

हम से कहते हैं चमन वाले गरीबाने-वतन
तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम

'फ़ैज़' उनको है तक़ाज़ा-ए-वफ़ा हम से जिन्हें
आशना के नाम से प्यारा है बेगाने का नाम

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पैराहन : वस्त्र, मौसमे-गुल : बहार का मौसम, बाम : छत, अटारी; शमएं : दीपक, तसव्वुर : कल्पना, बज़्म : महफ़िल, सभा; इकरारे-महबूबी : प्रेम की स्वीकृति, गरीबाने-वतन : बाग़ से बाहर रहने वाले, तक़ाज़ा-ए-वफ़ा : निष्ठा की आकांक्षा, आशना : पहचाना हुआ, अपना; बेगाने : गैर, अन्य !

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