Saturday, October 9, 2010

शहरयार

ग़ज़ल और नज़्म दोनों ही सामान रूचि और वैशिष्ठ्य से कहने वाले प्रो. अखलाक मोहम्मद खां को 'शहरयार' के रूप में उर्दू अदब में शायर और फिल्म जगत में गीतकार के रूप एक बहुत ऊंचा दर्ज़ा हासिल है ! 1936 में जन्मे 'शहरयार' ने उर्दू अदब को 'इस्मे-आज़म', सातवां दर', 'हिज्र के मौसम' और 'काफिले यादों के' जैसे कई अनुपम काव्य संकलन भेंट किए ! 'ख्वाब का दर बंद है' काव्य संग्रह पर उन्हें 1987 में साहित्य अकादमी ने अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाज़ा ! पढ़ें उनके इसी दीवान से एक बेहतरीन ग़ज़ल -


ज़ख्मों को रफू कर लें, दिल शाद करें फिर से
ख़्वाबों की कोई दुनिया, आबाद करें फिर से

मुद्दत हुई, जीने का, एहसास नहीं होता
दिल उनसे तकाज़ा कर, बेदाद करें फिर से

मुजरिम के कटहरे में, फिर हमको खड़ा कर दो
हो रस्मे - कुहन ताज़ा, फ़रयाद करें फिर से

ऐ अहल -ए - जुनूं देखो, जंजीर हुए साये
हम कैसे उन्हें, सोचो, आज़ाद करें फिर से

अब जी के बहलने की, है एक यही सूरत
बीती हुई कुछ बातें, हम याद करें फिर से

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शाद : प्रसन्न, बेदाद : जाग्रत, यहां आशय 'अत्याचार' से है; रस्मे-कुहन : प्राचीन परम्परा, फ़रयाद : फ़रियाद, प्रार्थना; अहल-ए-जुनूं : उन्मादग्रस्त व्यक्ति

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