राजस्थान की तत्कालीन टोंक रियासत में 1934 के दिसंबर की इकतीसवीं तारीख को पैदा हुए सुलतान मुहम्मद खां उर्दू अदब में 'मख्मूर' सईदी के रूप में बड़ी पहचान रखते हैं ! अंग्रेजी, कन्नड़ और फ़ारसी रचनाओं से उर्दू पाठकों का परिचय कराने वाले 'मख्मूर' के 'गुफ्तनी', 'सियाह बर सफ़ेद', 'आवाज़ का जिस्म', 'सबरंग', 'पेड़ गिरता हुआ' आदि शायरी के नौ संकलन तथा अनेक अन्य संपादित ग्रन्थ प्रकाशित हुए ! साहित्यिक पत्रिका 'तहरीक़' का भी उन्होंने लम्बे समय तक सम्पादन किया ! उन्हें उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली और राजस्थान की उर्दू अकादमियों ने उनकी रचना-धर्मिता के लिए सम्मानित किया ! यहां पढ़ें उनकी एक ग़ज़ल -
आंखों के सब ख़्वाब कहीं खो जाते हैं
आईने इक दिन पत्थर हो जाते हैं
ऐसा क्यूं होता है, मौसम दरमां के
दिल में ताज़ा दर्द भी कुछ बो जाते हैं
तुझसे वाबस्ता हर मंज़र की पहचान
तुझसे बिछड़ कर सब मंज़र खो जाते हैं
ख्वाबे-सफ़र इन आंखों में जाग उठता है
चांद, सितारे थक कर जब सो जाते हैं
कौन सी दुनियाओं का तसव्वुर ज़ेहन में है
बैठे - बैठे हम ये कहां खो जाते हैं
किस मौसम के बादल हैं जो कभी-कभी
दिल के मर्क़द पर आ कर रो जाते हैं
आईनों से पूछ के देखो ऐ 'मख्मूर'
चेहरे क्या होते हैं, क्या हो जाते हैं
ख्वाब : स्वप्न, सपना; दरमां : चिकित्सा, वाबस्ता : जुड़े हुए, सम्बंधित, सम्बद्ध; मंज़र : दृश्य, ख्वाबे-सफ़र : यात्रा का स्वप्न, तसव्वुर : कल्पना, ज़ेहन : मस्तिष्क, मर्क़द : समाधि-भवन
No comments:
Post a Comment