Thursday, October 7, 2010

'रिफ़अत' सरोश

बिजनौर के पास स्थित एक छोटे से स्थान नगीना में 1926 के किसी रोज जन्मे 'रिफ़अत' सरोश का वास्तविक नाम है सैयद शौकत अली, जिसे उन्होंने शायरी के लिए बदल लिया ! 'रिफ़अत' की शायरी उर्दू ग़ज़ल के रिवायती (पारम्परिक) खाके की दहलीज़ पर खड़े होकर नए ज़माने को देखती है, उसकी बात करती है ! यही कारण है कि 'रिफ़अत' कठिन शब्दों से बचते हैं और आम जन की बात आमफ़हम अल्फाज़ में ही करते हैं ! यही उनकी शायरी की एक बड़ी ताकत भी है !



अपने घर, अपनी धरती की आस लिए, बू-बास लिए
जंगल-जंगल घूम रहा हूं, जनम-जनम की प्यास लिए

जितने मोती, कंकर और खज़फ़ थे अपने पास लिए
मैं अनजान सफ़र पर निकला, मधुर मिलन की आस लिए

कच्ची गागर फूट न जाए, नाज़ुक शीशा टूट न जाए
जीवन की पगडंडी पर चलता हूं ये एहसास लिए

वो नन्ही सी ख़्वाहिश अब भी दिल को जलाए रखती है
जिसके त्याग की खातिर मैंने कितने ही बनबास लिए

सोच रही है कैसे आशाओं का निशेमन बनता है
मन की चिड़िया, तन के द्वारे बैठी चोंच में घास लिए

जब परबत पर बर्फ गिरेगी सब पंछी उड़ जाएंगे
झील किनारे जा बैठेंगे, इक अनजानी प्यास लिए

छोड़ के संघर्षों के झंझट, तोड़ के आशा के रिश्ते
गौतम बरगद के साये में बैठा है संन्यास लिए

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खज़फ़ : कंकरिया, निशेमन : घोंसला

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