नई-नई आंखें हों, तो हर मंज़र अच्छा लगता है
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है
मिलने-जुलने वालों में तो सारे अपने जैसे हैं
जिससे अब तक मिले नहीं, वो अक्सर अच्छा लगता है
मेरे आंगन में आए या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है
चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने सांचे हैं
जो मूरत में ढल जाए, वो पैकर अच्छा लगता है
हमने भी सोकर देखा है नए-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है
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मंज़र : दृश्य, पैकर : आकृति
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