लुधियाना में 1927 में जन्मे शेर मोहम्मद खां ने कमसिनी में ही स्वयं को इब्ने इंशा कहलाना पसंद किया ! लहज़े के सूफ़ियाना अंदाज़ और मन की सादामिजाज़ी ने उनके कलाम को वह ख़स्तगी और फ़कीरी बख्शी कि वे हिंदी में कबीर तथा निराला और उर्दू में 'मीर' एवं 'नज़ीर' की परंपरा के वाहक बने ! 'उर्दू' की आखिरी किताब' ने उन्हें एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार के रूप में उर्दू अदब का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया है ! 'चांद नगर' और 'इस बस्ती के इस कूचे में' उनके उल्लेखनीय और जनप्रिय काव्य-संकलन हैं ! यहां लुत्फ़ उठाइए उनकी एक सूफ़ियाना अंदाज़ की ग़ज़ल का -
इंशाजी उठो अब कूच करो, इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब, जोगी का नगर में ठिकाना क्या
इस दिल के दरीदा दामन को, देखो तो सही, सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए, उस झोली का फैलाना क्या
शब बीती, चांद भी डूब चला, ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यों देर गए घर आए हो, सजनी से करोगे बहाना क्या
फिर हिज्र की लम्बी रात मियां, संजोग की तो यही एक घड़ी
जो दिल में है लब पर आने दो, शरमाना क्या, घबराना क्या
उस रोज़ जो उनको देखा है, अब ख़्वाब का आलम लगता है
उस रोज़ जो उनसे बात हुई, वह बात भी थी अफ़साना क्या
उस हुस्न के सच्चे मोती को, हम देख सकें पर छू न सकें
जिसे देख सकें पर छू न सकें, वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या
उसको भी जला दुखते हुए मन, इक शोला लाल भभूका बन
यूं आंसू बन बह जाना क्या, यूं माटी में मिल जाना क्या
जब शहर के लोग न रस्ता दें, क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी न बात करे, तो और करे दीवाना क्या
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दरीदा : बेहया, लज्जाहीन, शब : रात, हिज्र : वियोग, लब : होंठ, अफ़साना : कहानी, बिसराम : विश्राम, दीवाना : पागल
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