इन्हीं पत्थरों प' चलकर अगर आ सको तो आओ
मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है
पढ़ें उनकी इसी स्थिति का अफसोस और दर्दनाक बयान करती यह ग़ज़ल -
नगर-नगर मेले को गए, कौन सुनेगा तेरी पुकार
ऐ दिल, ऐ दीवाने दिल, दीवारों से सर दे मार
रूह के इस वीराने में, तेरी याद ही सब कुछ थी
आज तो वो भी यूं गुज़री, जैसे गरीबों का त्योहार
पल-पल सद्दियां बीत गईं, जाने किस दिन बदलेगी
एक तिरी आहिस्ता-रवी, एक ज़माने की रफ़्तार
पिछली फ़स्ल में जितने भी अहले-जुनूं थे काम आए
कौन सजाएगा तेरी मश्क़ का सामां अबकी बार
सुबह के निकले दीवाने अब क्या लौट के आएंगे
डूब चला है शहर में दिन, फैल चला है सायादार
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तख़ल्लुस : उपनाम, इस्मे-शरीफ : शुभनाम, कहकशां : आकाशगंगा, छायापथ; प' : पर, दर्दनाक : पीड़ाजनक, रूह : आत्मा, सद्दियां : सदी का बहुवचन, सदियां; आहिस्ता-रवी : धीमी गति, फ़स्ल : ऋतु, अहले-जुनूं : जुनून वाले, उन्मादी लोग; मश्क़ : अभ्यास, सायादार : वृक्ष की छाया
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