Saturday, October 9, 2010

मुस्तफा ज़ैदी

इलाहाबाद में 1930 में पैदा हुए मुस्तफा ज़ैदी शुरुआत में 'तेग़' इलाहाबादी के तख़ल्लुस से शायरी किया करते थे, लेकिन विभाजन के वक़्त पाकिस्तान जाने के लिए इलाहाबाद छूटा, तो यहां का नाम यहीं छोड़ गए और नए मुल्क में नया इस्मे-शरीफ 'मुस्तफा ज़ैदी' अपनाया ! किन्तु उन्हें न नया मुल्क रास आया, न नया नाम ! बाद की चालीस साला काव्य-यात्रा इसी बात की गवाह है कि उनकी रग-रग में इलाहाबाद बसा हुआ था, जिससे वे मरते-मरते भी पीछा नहीं छुड़ा पाए ! उन्होंने कहा भी था -


इन्हीं पत्थरों प' चलकर अगर आ सको तो आओ
मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है
 



पढ़ें उनकी इसी स्थिति का अफसोस और दर्दनाक बयान करती यह ग़ज़ल -


नगर-नगर मेले को गए, कौन सुनेगा तेरी पुकार
ऐ दिल, ऐ दीवाने दिल, दीवारों से सर दे मार

रूह के इस वीराने में, तेरी याद ही सब कुछ थी
आज तो वो भी यूं गुज़री, जैसे गरीबों का त्योहार

पल-पल सद्दियां बीत गईं, जाने किस दिन बदलेगी
एक तिरी आहिस्ता-रवी, एक ज़माने की रफ़्तार

पिछली फ़स्ल में जितने भी अहले-जुनूं थे काम आए
कौन सजाएगा तेरी मश्क़ का सामां अबकी बार

सुबह के निकले दीवाने अब क्या लौट के आएंगे
डूब चला है शहर में दिन, फैल चला है सायादार

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तख़ल्लुस : उपनाम, इस्मे-शरीफ : शुभनाम, कहकशां : आकाशगंगा, छायापथ; प' : पर, दर्दनाक : पीड़ाजनक, रूह : आत्मा, सद्दियां : सदी का बहुवचन, सदियां; आहिस्ता-रवी : धीमी गति, फ़स्ल : ऋतु, अहले-जुनूं : जुनून वाले, उन्मादी लोग; मश्क़ : अभ्यास, सायादार : वृक्ष की छाया

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